Harichand Thakur Aur Matuya Dharma (Hindi)
हरिचाँद ठाकुर
और
मतुयाधर्म
सुधीर रंजन हालदर
॥ प्राक्कथन ॥
लगभग हर स्थान पर देखा जाता है कि‚ अधिकांश मतुया भाइयों ने हरिचाँद ठाकुर के प्रवर्तित सम्पूर्ण अवैदिक मतुयाधर्म
को वैदिक हिन्दुधर्म के साथ मिला देते है। जो मतुया नही‚ किन्तु हरिचाँद ठाकुर के प्रति आकृष्ट हैं‚ उन्होने भी सोचा कि मतुयो
वैदिक धर्म का एक अलग सम्प्रदाय है। वे हरिचाँद ठाकुर को वैदिकधर्म के
बिष्णु का राभ‚ कृष्ण एवं गौरांग
के जैसे प्रमुखों की तरह एक अवतार ही सोचते हैं। हरिचाँद ठाकुर के जीवनी लेखक कवि तारकचन्द्र सरकार ने भी ऐसा वर्णन किए हैं। किन्तु “श्रीश्रीहरिलीलामृत”पढ़ने के बाद मुझे मालुम
हुआ कि मतुयाधर्म सम्पूर्ण अलग एक अवैदिक धर्म हैं। मतुया भाइयों को यह बताने के लिए
मेरा यही “हरिचाँद ठाकुर और मतुयाधर्म” किताब लिखने का प्रयास हैं।
सुधीर रंजन हलदर
मोबाः 9433814298/7407103432
॥ प्रथम परिच्छेद ॥
महावीर‚ गौतम बुद्ध एवं गुरु नानक आदि द्वारा जैसे भारत मे वैदिक
तथा हिन्दुधर्म के ख़िलाफ़ प्रतिवादी धर्म रूप से जैन‚ वौद्ध एवं सिख आदि धर्मो की सृष्टि हुई‚ ठिक ऐसे ही रूप में हरिचाँद ठाकुर
द्वारा वैदिकधर्म के ख़िलाफ़ अवैदिक मतुयाधर्म की सृष्टि हुई।
हरिचाँद ठाकुर और सुपुत्र गुरुचाँद ठाकुर ने आमरण मतुयाधर्म के प्रचार
और प्रसार कार्य में आत्मनियोग किया‚ किन्तु दुःख का बात यहा हैं
कि जैन, बौद्ध और सिख धर्म के लोगों ने ब्राह्मण्य
धर्म लोगों ने ब्राह्मण्य
धर्म के प्रभाव से संमपूर्ण मुक्त होकर निजस्व धर्म का आचार–आचारण पालन कर रहे हैं। मतुयाधर्म के लोग ऐसा
नहीं करते हैं। उनमें अधिकांश लोग वैदिकधर्म का आचार पालन
कर रहे हैं। हरि–गुरुचाँद ठाकुर वेद‚ वैदिकधर्म‚ जात–पात‚ स्वर्गयात्रा एवं आत्मा की
शान्ति आदि विषयों का विरोध कर रहे थे। वास्तव में इन्ही विषयो के ख़िलाफ़ मतुयाधर्म की सृष्टि हुई थी। इस वैशिष्ट्ययों को हरिचाँद ठाकुर ने उनके कर्मजीवन में जैसा दिखाया था‚ वैसा ही उनके लीलाग्रन्थ में कवि तारकचन्द्र सरकार ने लिखित आकार का रूप दिए
हैं। फिर भी उसी ग्रन्थ में तारकचन्द्र के द्वारा स्वविरोधी कथन से वैदिक चिन्ताधारायों को अन्तर्भुक्त कर एक विचित्र अवस्थान किया
गया हैं।
हरिचाँद ठाकुर और उनके प्रचारित मतुयाधर्म को बात कहने से पहले जिस प्रकार बंगदेश अर्थात वर्तमान के बालादेश और पश्चिमबंग के
उस समय के सामाजिक‚ अर्थनैतिक और धर्मीय अवस्था
के संपर्क में कुछ विषयों को जानना आवश्यक हैं‚ उसी प्रकार ही भारतबर्ष की प्राचीन धर्म के संपर्क में भी जानना आवश्यक हैं। इतिहास से हमे जो कुछ मी जानना संमभ हुआ‚ उसमें से संक्षेप में कुछ इस प्रकार हैं—
आर्य–पूर्व भारतबर्ष में प्राचीन काल से एक उन्नत सभ्यता वर्तमान था। इसी सम्यता को सिन्धु–सभ्यता कहा जाता था। इस समय के लोग प्रकृति पूजारी
थे। इस समय स्वाभाविक नियम से न्याय–नैतिकता और समता की भित्ति
पर धर्म बना हुआ था‚ उसका नाम था “सनातनधर्म”। इसी धर्म में कोई वर्णभेद नही था अर्थात जन्मजात कारण
से कोई ऊँचा या नीचा नहीं था। इसी युग में अनेक ज्ञानीगुणी लोगों का जन्म हुआ। वे समाज में शान्ति–शृंखला को बनाये रखने और मानवीय उन्नतिकल्प में धर्म के नियम एवं कानुनों को निर्दिष्ट
करते थे। उन लोगों को “बुद्ध”कहा जाता था। आर्य–पूर्व भारत में ऐसे सत्ताइश
बुद्धों के नाम जाने जाते हैं।
आर्यो ने भारत में आकर भारतीयों की सभ्यता ध्वंस कर दी। उनकी संपत्ति भी दखल कर ली। न्याय–नैतिकता और साम्य का धर्म सनातनधर्म को बिगड़ दिया और ब्राह्मन्यधर्म का प्रचार किया। उसी समय पर ब्राह्मन्यधर्म का धर्मग्रन्थ वेद की रचना की गई। इस लिए
इसी धर्मको वैदिकधर्म कहा जाता हैं। इसी धर्म में ऊँच–नीच क्रमानुसार वर्णविभाजन
के बाद समाज में चतुर्वर्ण की सृष्टि की गई। वर्णो के नाम यथाक्रम में ब्राह्मण‚ क्षत्रिय‚ बैश्य एवं शूद्र। शूद्र वर्ण के भितर भी अनेक जातिओं की सृष्टि की गई। अनेक लोगों को अस्पृश्य भी किया गया। प्रत्येक वर्ण और जातियों के कर्म भेद एवं विभिन्न
अधिकार भी निर्दिष्ट कर दिये गये। शूद्र और अस्पृश्यों को संपत्ति‚ शिक्षा और अन्यान्य समस्त
अधिकार से वंचित किया गया। इस कारण से वे अमानवीयता का शिकार होकर मनूष्येतर जीवन यापन करने को बाध्य हुए।
गौतम बुद्ध का धर्ममत “बौद्धधर्म”प्रचारित होने का बाद उसी धर्म का न्याय–नैतिकता, साम्य–मैत्री और स्वाधीनता की उदारता
देख कर अधिकांश भारतवासी मुग्ध हुए थे। भारत के विभिन्न राजबंशों ने बौद्धधर्म को ग्रहण
करने के बाद अधिकांश भारतवासीयों ने बौद्धधर्म को आश्रय किया। सर्वश्रेष्ट भारतसम्राट अशोक ने बौद्धधर्म ग्रहणपूर्वक
उसी धर्म के प्रचार के लिए मनोनिवेश किया था। फलस्वरूप व्राह्मनों का एकाधिकार क्षमता
और अधिकार भोग समाप्त हुआ एवं देश के अन्दर पुनः न्याय–नैतिकता और सामाजिक साम्य
लौट आया।
सम्राट अशोक के शासनकाल में सामाजिक साम्य प्रतिष्ठा होने से व्राह्मनों को समाज में सर्वोच्च आसन में रहने और एकाधिकार भोग करने की सुविधा नही रहने से ब्राह्मण्यधर्म अवदमित अवस्था में रहा। फलतः ब्राह्मण हमेशा गुस्से में आगबबुला रहते थे। किन्तु राजशक्ति के भय से उनमें
कुछ करने का साहस नही था। अन्त में सम्राट अशोक के बंशधर बृहद्रथ की हत्या कर ब्राह्मण सेनानायक पुष्यमित्र द्वारा मगध का सिंहासन
दखल करने का बाद बहुत दिनों तक ब्राह्मण्यधर्म का झुका सिर पुनः सिर ऊँचा उटकर प्रकट
हुआ। पुष्यमित्र ने राज्यलाभ करने का बाद बौद्धधर्म के बिरुद्ध में प्रचण्ड निर्यातन का अभियान चलाया
था। देश में बौद्धधर्म के पालन पर निषेधाज्ञा जारी किया गया। इसलिए वह समस्त बौद्ध भिक्कुओं की हत्या करने
का आदेश दिया एवं प्रत्येक बौद्ध भिक्कुओं के सिर के बदले में एक सौ स्वर्णमुद्रा का पुरस्कार देने की घोषणा की। इस कारण से अनेक बौद्ध भिक्कुओं को मरना पड़ा एवं शेष भिक्कुओं ने नेपाल‚ भुटान और दुर्गम पाहाड़ी अंचल
की ओर भाग गये। इसी तरह से भारत से बौद्धधर्म का निष्कासन हुआ था।
पुष्यमित्र के राज्यलाभ के बाद ब्राह्मण्यधर्म फिर से अधिक कठोर अवस्थान में लौट आया। इस समय पर पुष्यमित्र के आदेशानुसार सुमति भार्गव नामक एक ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मण्यधर्म का एक नया संविधान कुख्यात “मनुसंहिता” या “मनुस्मृति” लिखा गया। चतुर्वर्ण और जात–पात प्रथा अधिक कठोर अवस्थान में लौट आया। एक बार फिर मुष्टिमेय ब्राह्मणों ने
सब से ऊपर रह कर समस्त अधिकारों का भोग करने लगे एवं समाज के अधिकांश लोग शूद्र और
अस्पृश्य होकर अधिकारहीन अवस्था में दुर्बिसह जीवन यापन करते रहे।
भारतबर्ष में सर्वत्र बौद्धधर्म को निश्चिन्ह करते हुए ब्राह्मण्यधर्म का विस्तार होने के बाद भी पालराजाओं का शासनकाल तक बंगदेष में बौद्धधर्म का प्रभाव
अटुट था‚ क्योंकि पालराजाओं ने बौद्धधर्माबलम्बी थे। पालराजाओं को युद्ध में हराकर कर्णाटक के ब्राह्मण राजा विजय सेन ने बंगदेश को दखल किया। तत्पश्चात् उस जगह पर भी ब्राह्मण्यधर्म का विस्तार आरंभ हुआ। ख्रिस्टीय पंचम शताब्दी
में ब्राह्मण्यधर्म के पृष्ठपोषक गुप्तबंशीय सम्ऱाटों की सहायता से बंगदेश में सर्वप्रथम ब्राह्मणों को
पुनर्बासन देना आरंभ हुआ। आर्यावर्त के ब्राह्मणों को बंगदेश में लेने के बाद भूमि एवं अर्थ देकर पुनर्वासन किया गया, जिससे वे आर्यवर्जित बंगदेश में वैदिक और पौराणिक ब्राह्मण्यधर्म को प्रतिष्ठत
कर सके। धीरे धीरे उनकी वही प्रचेष्टा से सफलता लाभ भी हुआ। राजा विजय सेन के शासनकाल में समग्र बंगदेश में
ब्राह्मण्यधर्म प्ऱतिष्ठित हो गया।
प्राचीनकाल से बंगदेश में नमःजाति के लोग बौद्धधर्मालम्वी थे। वे शौर्यवीर के लिए
बिख्यात थे। राजकार्य तथा सेनावाहिनी आदि गुरुत्वपूर्ण पदो में वे अधिष्ठित थे। बौद्धधर्मी
पालराजाओं में भी नमःजाति के लोग थे।
बंगदेश में जिन्होने ब्राह्मण्यधर्म में योगदान किया उनको शूद्र वर्ण में स्थान दिया गया। माहिष्य‚ कपालि‚ राजवंशी‚ पौण्ड्र (पोद)‚ कैबर्त‚ तेली‚ माली‚ भुँइमाली‚ कायस्थ‚ कमार‚ कुम्हार एवं ग्वाला प्रमुख
ऐसा वैदिकधर्म में सामिल हुए। किन्तु अधिक जनगोष्ठी सम्मिलित नमःजाति के लोगों ने वैदिकधर्म ग्रहण करने से अस्वीकार किया एवं वनजंगलों‚ खाल–बिल‚ नदी–नालाओं‚ दुर्गम अंचल तथा जलाभूमिओं में जाकर आश्रय लिया। वर्तमान काल का यशोहर‚ बरिशाल‚ खुलना‚ फरिदपुर‚ढाका तथा मयमनसिंह आदि जिलाए उसी अंचल का अन्तर्भुक्त हौं। नये पुनर्वासित ब्राह्मणों ने पहले ही उनको वैदिकीकरण के असफल होने पर उनको “चण्डाल” गालि देते हुए अस्पृश्य कर
दिया था। राजा वल्लाल सेन उनके “चण्डाल” नाम को चिरस्थायी रखने का बन्दोबस्त किया।
चण्डाल नामकरण के बाद नमःजाति अन्यान्य समस्त जातियों के लिए
अस्पृश्य और घृणित हो गये। वे राजशक्तियों के भय से अपने धर्म (बौद्धधर्म) का पालन
नहीं कर सकते थे। शिक्षा और धर्मीय अधिकार के साथ साथ समस्त मानवाधिकार से भी वंचित होते हुए वे धर्महीन हो गये एवं पतित
जाति रूप में रहने लगे। बहुत दिनों तक धर्मीय आचार पालन नहीं करने के कारण कुछ समय बाद वे उनके धर्म बौद्धधर्म को भी भुल गए एवं धीरे धीरे खुद को हिन्दु रूप में भावने आरंभ किया। परवर्ती कालों में ब्राह्मणों की प्ररोचना में धीरे धीरे कुछ पुरुष हिन्दुओं का अनुसरण कर पूजापाठ‚श्राद्धक्रिया आदि वैदिक क्रिया में भाग लेना आरंभ किया। इसी लिए अन्यान्य हिन्दु सम्प्रदायों के साथ उनके अधिकांश आचार–अनूष्ठानों में भिन्नता देखा जाता हैं।
हरिचाँद ठाकुर के जन्म के समय अर्थात उनीसवी शताब्दी के प्रथम भाग में वैदिकधर्म
के अनुसारियों ने निम्नबर्णो के‚ विशेष रूप से नमःजाति के लोगों
की अवस्था अत्यन्त शोचनीय कर दी थी। गोष्ठीगत जनसंख्या के हिसाव से वे सर्वाधिक संख्या में थे। उच्चबर्णो के द्वारा विभिन्न प्रकार से शोषित होकर वे
मनुष्य होते हुए भी मनुष्येतर जीवन यापन करते थे। शिक्षा का अधिकार न होने के कारण वे अशिक्षा के अन्धकार में डुबे रहे। व्यावसाय–वाणिज्य और भू–संपत्ति के स्वअल्पता हेतु उनका अर्थनैतिक अवस्था वहुत खराव था। अनेक कुसंस्कारों में आच्छन्न रहते हुए चिकित्सा के अभावमें उनका जीवन दुर्बिसह हो रहा था। धर्म के अधिका से बंचित होते हुए वे समाज में मर्यादाहीन पतित श्रेणी में रहते थे। इसके बाद भी निम्नबर्ण के अन्यान्य लोगों जैसे—तेली‚ माली‚ कामार‚ कुम्हार‚ जेले एवं कपालि इत्यादि सम्प्रदायों के लोगों की अर्थनैतिक अवस्था और सामाजिक मर्यादा भी विशेष अच्छी नहीं थी। इसके साथ प्रजाओं के ऊपर जमीदारों द्वारा किया गया शोषण और अत्याचार भी अत्यन्त निर्मम था।
प्रसंगत नमःजाति के लोग कभी शूद्र नहीं थे‚ क्योंकि वे बौद्धधर्म को छोड़कर वैदिकधर्म में सामिल नहीं हुए। इसलिए उनके शूद्र होनेका कोई प्रश्न नहीं उठता।
॥ द्वितीय परिच्छेद ॥
पूर्वबंग के फरिदपुर जिला के गोपालगंज महकुमा के भितर सफलडांगा गाँव में 1812 ख्रिस्टाब्द के 1 मार्च बुधबार (बांगला 1218) महामानव हरिचाँद ठाकुर नमःजाति अर्थात तथाकथित चण्डाल जाति के घर में एक कृषक परिवार में जन्मग्रहण किये थे।
पहले कह चुके हैं कि‚ ब्राह्मण पुरोहित और शासक वर्ग में उद्देश्य पूर्वक षड़यंत्र करते हुए नमःजाति के लोगों को “चण्डाल”नाम देते हुए अस्पृश्य कर रखा था। विशेषतः बल्लाल सेन के शासनकाल में इस नामकरण को पूर्णरृप से अन्तिम रूप दिया गया था। प्रकृतपक्ष में वैदिकधर्म के चण्डाल जाति के साथ नमःजाति का कोई संपर्क नहीं है। चण्डाल जाति की उत्पत्ति के संबंध में हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ 'मनु संहिता' और बृहद्धर्म पुराण में कहा जाता हैं— “शूद्र पुरुषों और ब्राह्मण नारीवृन्द की अबैध यौनमिलन के फलस्वरूप जो सन्तानों का जन्म हुआ उनको लेकर चण्डाल जाति गठित हुआ।” किंतु पूर्वबंग के नमःजाति के बारे में यह बात सही नहीं है क्योंकि वैदिकधर्म में तथाकथित चण्डाल अर्थात
नमःजाति के लोगों की संख्या एतनी अधिक होती हैं की प्रत्येक ब्राह्मणों की पत्नीयों के साथ यदि शूद्रों ने अवैध संपर्क स्थापन पूर्वक यौनमिलन करते रहे‚ और हर साल सन्तान उत्पन्न करते रहे‚फिर भी इतनी संख्या में चण्डालों को जन्म देना संभव नहीं हैं।
हरिचाँद ठाकुर के पिता का नाम था यशोमन्त (यशोवंत नहीं)
ठाकुर और माता का नाम था अन्नपूर्णा । हरिचाँद ठाकुर का बाल्यनाम नाम था हरिदास। वे पाँच भाई थे। उनके नाम यथाक्रम में— कृष्णदास‚ हरिदास‚ वैष्णवदास‚ गौरीदास और स्वरूपदास। हरिचाँद ठाकुर के जीवनलीला विषयक “श्रीश्रीहरिलीलामृत” नाम देते हुए कवि रसराज तारकचंद्र सरकार ने एक ग्रन्थ लिखा। उसी ग्रन्थ से ही हम लोग हरिचाँद ठाकुर के संवन्धमें सबकुछ जान सके। कुछ लोग कहते हैं— कुछ लोग पुस्तकों में भी लिखते हैं कि‚ हरिचांद ठाकुर के पूर्वपुरुषों में मैथिली ब्राह्मण थे। रामदास नामक उसके एक पूर्वपुरुष राढ़ अंचल से तीर्थ करते हुए यशोर जिला के नमःजाति अध्युषित लक्ष्मीपाशा गाँव में वसवास करना आरंभ किये थे। उनके नमःजाति के लोगों के साथ सामाजिक संबंध रखने के लिए ब्राह्मणों ने उनको जातिच्युत कर दिया था। इस कारण उनके पुत्र चंद्रमोहन के लिए कोई भी ब्राह्मण पात्री न मिलने के कारण उनका विवाह नमःजाति की कन्या के साथ कर दिया गया। वहाँ से वे नमःजाति के साथ अन्तर्भूक्त हो गये थे।
किंतु यह बात बिल्कुल सच नहीं हैं। तारकचंद्र ने यह बात नहीं लिखा। यदि यह बात सत्य होती तो हरिचांद ठाकुर के घनिष्ठ संस्पर्श में आते हुए तारकचंद्र सरकार ने अवश्य यह तथ्य उल्लेख किया होता। यह बात छोड़ने पर मी किसी ब्राह्मण सन्तान के निम्नवर्ण की कन्या के साथ विवाह करने से उसकी जाति का नाश नहीं होता। यह एक उद्देश्य प्रणोदित हास्यकर कहानी के अलावा अन्य कुछ नहीं हैं। अनेक मतुया भक्त वही लिखन पढ़ते हुए विभ्रान्त होते हैं। लेकिन यह ठिक नहीं। सत्य यह हैं कि हरिचांद
ठाकुर के पूर्वपुरुषों में कभी ब्राह्मण नहीं थे। उनके मूल में नमःजाति के लोग थे। लक्ष्मीपाशा गाँव में वहुत संख्या में नमःजाति के लोग निवास करते थे। जिसके कारण रामदास ने स्वजाति देखते हुए उनके साथ वसवास आरंभ किया। यही तथ्य सर्वांश में सत्य हैं।
हरिचांद ठाकुर के पिता परम वैष्णव अर्थात कृष्णभक्त
थे। कोई लोग उन्हे बैरागी भी कहते थे। उनका पदवि (उपाधि) विश्वास था‚लेकिन उनके द्वारा पहले से ही नित्य साधुसेवा‚ वैष्णव धर्मका आचार पालन करने के कारण उन्हे सब लोगों से “ठाकुर” उपाधि मिली। वही से यशोमन्त और उनके पुत्रों को सब लोग ठाकुर उपाधि से जानने लगे।
हरिचांद ठाकुर बाल्यकाल में बहुत दुरन्त थे। बाल्यसाथीयों में— ब्रज‚ नाटु‚ बिश्वनाथ प्रमुखों के साथ रत्नडांगा बिल के पास गाय चराने के लिए जाया करते थे। वे वैष्णवों को पसंद नहीं करते थे। “अनेक वैष्णव कदाचार में लिप्त”— यही बात वे बाल्यकाल से कहते थे। घर में किसी वैष्णव के आने से पिता यशोमंत के द्वारा उनके चरणामृत पान करना और चरणधूलि लेने को कहने से हरिचाँद यह करने से अस्वीकार करते थे। कभी–कभी वैष्णवों का झोला भी छुपा कर पानी में फेंक देते थे।
हरिचांद ठाकुर की पत्नी का नाम शान्तिवाला था‚ जिनको हम शान्तिमाता के नाम से जानते हैं। उनका पित्रालय फरिदपुर जिला के (अब बांग्लादेश में) जिकावाड़ि गाँव में था। उनके पिता का नाम लोचन प्रामाणिक था।
हरिचांद ठाकुरों जमींदार सूर्यमणि मजूमदार के जमीदारी में वास करते थे। जमींदार सूर्यमणि मजूमदार ने मिथ्या मामला में डिक्रि जारि कर ठाकुरों के मकान को स्वयं के नाम पर कर लिया था। इसी घटना के बाद ठाकुर परिवार ने सफलाडांगा के मकान को त्याग करने को बाध्य हुए। सफलाडांगा त्याग करने के बाद उन्होने फरिदपुर जिला के रामदिया में सेन के मकान मे आश्रय लिया। वहाँ से फिर पार्श्ववर्ती गाँव ओड़ाकान्दि में श्रीभजराम चौधुरी के आवास में शरण ली।
हरिचांद ठाकुर को औपचारिक
शिक्षा का मौका नहीं मिला। उन दिनों में नमःजाति को चण्डाल कहा जा रहा था‚ जो कि पहले ही बताया गया हैं। चण्डाल अस्पृश्य होने के कारण उन्हें विद्याशिक्षा पाने का कोई अधिकार नहीं था। इसलिए वे विद्यालय नहीं जा सके। जिससे वे लिखना–पढ़ना भी नहीं सिख पाये। इसलिए उनके पास पुँथिगत शिक्षा नहीं थी। किंतु लिखना–पढ़ना नहीं जानते हुए भी वे प्रखर बुद्धिमत्ता और अत्यन्त मेधा संपन्न ज्ञानी व्यक्ति थे। बाल्यकाल से ही उनकी बुद्धिमत्त्ता का परिचय बन्धुओं के पास प्रकट हुआ था। सभी बन्धु एवं साथी उन्हे घेरे रहते थे। वे सभी की सब समस्याओं का समाधान कर देते थे। प्रथागत शिक्षा में शिक्षित न होते हुए भी उन्होंने प्रखर
बुद्धिमत्ता के बल पर विज्ञान और युक्ति निर्भर बौद्धिक दर्शन में उपलब्धि प्राप्त किया था। कर्मजीवन में उनका यह ज्ञान और बुद्धिमत्ता के माध्यम से गिराया हुया जनगोष्ठी अर्थात पतित लोगों के मुक्तिदूत रूप में आविर्भूत हुए थे।
उन दिनों में, वर्तमान काल के जैसे चिकित्सा व्यावस्थाओं का कोई सुयोग एवं आज की तरह उन्नति भी नहीं था। ग्रामीण इलाकों में
एक बहुत ही दुखद स्थिति थी। ग्रामीण क्षेत्रों में कोई
डॉक्टर भी नहीं थे‚ खासतौर से पतित जनगोष्ठी अध्युषित गांवों में। जल वाहित खतरनाक रोगों के कारत से अधिकांश समय गाँव में महामारी फैली रहती थी। खासतौर से हैजा
और चेचक के समय पर। ओझाओं द्वारा किया गया झाड़फुक‚ कवच–ताबिज धारण और ईश्वर पर निर्भर करना ही था उनका एकमात्र चिकित्सा।
हरिचांद ठाकुर निजस्व बुद्धिमत्ता
बल से गाँव के लोगों की प्राकृतिक चिकित्सा के
एक डॉक्टर की भूमिका ग्रहण किये थे। वे रोगमुक्ति के लिए वही खाने को कहते थे जिससे रोगों की वृद्धि होती हैं। जैसे— बुखार होने से पान्ताभात (पानी में डुबा बासी चावल) के साथ इमली पानी देते; दर्द‚ अजीर्ण‚ वमन किंवा अम्लपित्त रोगों में पीतल का रकाबी में इमली पानी पीने को कहते थे। उसी प्रकार गुटिका रोग में शरीर में गोबर एवं गोमूत्र‚ मूत्रकृच्छ में अधिक पानी या डाब का पानी (कच्चे नारियल का पानी) किंवा शरबत पीना‚ आमाशय में पान और तुलसी के जड़ का सेवन ‚ निःसन्तानों को सन्तान प्राप्ति के लिए मासिक चलते समय भादाल का बीज सेवन‚चर्मरोग होने से हलदि एवं नीमपत्ते का लेप। ऐसे विभिन्न
प्रकार के बनौषधि का प्रयोग करते थे।
इसी प्राकृतिक टोटका
चिकित्सा से अधिकांश रोगों का निरामय हो जाता था। इन्ही कारणों से वे गाँवों के लोगों के पास उद्धारकर्ता के रूप
में प्रतिष्ठित हुए। वहीं समय के कुसंस्काराच्छन्न वैदिकधर्म प्रमावान्वित गाँवों के
लोगों में वे तथाकथित ईश्वर के अवतार रूप में परिगणित हुए थे।
हरिचांद ठाकुर केवल चिकित्सक की भूमिका ही ग्रहण नहीं किए थे अपितु वे गिरे हुए अर्थात छोटे जाति के लोगों के लिए सभी प्रकार से काम में अग्रणी भूमिका निभायें थे। कृषकों प्रति नीलकर साहेवों के अत्याचार के विरोध में कृषकों के साथ गोपालगंज महकुमा के जोनासुर नीलकुठि में अभियान का नेतृत्व भी किया। उसी अभियान में वहा के नीलकुठि ध्वंस किया गया था और नृशंस अत्याचार करने वाले नीलकर साहेव को जला दिया गया था। संसार प्रतिपालन के लिए उन्होने विभिन्न समय पर विभिन्न कार्य में नियोजित थे। एक समय वे तेलका व्यापार करते थे तथा एक समय ऐसा था जब वे गाँव–गाँव में परचूनिया सामान भी बिक्री करते थे। वे व्यावसाय बृत्ति के प्रसार और विज्ञान सम्मत पद्धति में अनावादी जमीन पर क्षेती करते हुए कृषिकार्य में उन्नति किये थे। उसी समस्त कार्य द्वारा उन्होने सभी वंचित लोगों को अपने
परिवार के पालन-पोषण और जीवन में उन्नति करने का सठिक मार्ग की दिशा देखाये थे।
॥ तृतीय परिच्छेद ॥
अलीक (मिथ्या) कल्पना‚ असाम्य और मिथ्या भेदाभेद सृष्टिकारी हिन्हुधर्म तथा वैदिकधर्म के विरुद्ध में था हरिचाँद ठाकुर का असली संग्राम। युक्तिबाद की प्रतिष्ठा करने के लिए धर्म और अलीक कल्पना में भरा हुया धर्मग्रन्थओं के विरुद्ध में संग्राम। वेद‚ पुराण‚ मनुसंहिता का स्वार्थान्वेषी कानुन के विरुद्ध में उनके संग्राम। वही सब मिथ्या शास्त्रों के विरुद्ध में उन्होने कहा था— “कुत्ता का उच्छिष्ट खाना खाने को भी मान लेने को तैयार हैं‚लेकिन वेदविधि शौचाचार मानने को तैयार नहीं।” बाद में उन्होने वेद विधि बहिर्भूत एक नया धर्म का प्रवर्तन किया‚ जिसका नाम “मतुयाधर्म”।
हरिचाँद ठाकुर ने अपने संगीसाथियों के साथ जिस प्रकार “हरिबोल”ध्वनि से धर्मीय अनुष्ठान करने लगे‚ वैदिकता की सम्पूर्ण वर्जन करते हुए जो कुछ अवैदिक आचार अनुष्ठान पर डटे(मत्त) रहते थे‚ वह देखते हुए उसके विरोधीयों ने‚ खासतौर से ब्राह्मण–कायस्थोंने ब्यंग करते हुए उनको “मत्तो”—“मउत्ता”— “मतुया” नाम से अभिहित किया करते थे। हरिचाँद ठाकुर भी उसी “मतुया” नाम को मान लिये। उन्होने स्वयं कहा हैं—“भिन्न सम्प्रदाय मोरा मतुया आख्यान।” अर्थात हमने“मतुया”नाम पर एक अलग सम्प्रदाय हैं। अब जिसने या जो हरिचाँद ठाकुर के अवैदिक आदर्श का पालन करते रहेंगे वो ‘मतुया’हैं।
इस धर्म प्रवर्तन का मुख्य उद्देश्य हैं कुसंस्काराच्छन्न शिक्षाहीन‚ धर्महीन पतित नमःजाति के साथ अन्यान्य अधःपतित जाति समूहों को एक धर्म के वंधन में आबद्ध करना‚ उन्नततर गृहस्थ जीवन में पूर्ण शान्ति लाने का उपाय निर्धारण करना और सामाजिक असाम्ययों को बिलोप साधन कर बिश्वसौभ्रातृत्वबोध प्रतिष्ठित करना। मतुयाधर्म कर्म और बाणी का धर्म हैं‚यह निर्दोष और बिज्ञजन प्रशंसित हैं। इस धर्म का मूल बैशिष्ट्य हैं कर्मभित्तक सत्य‚ साम्य‚ प्रेम और पवित्रता का निदर्शन।
हरिचाँद ठाकुर ने मतुयाधर्म पालन के लिए कुछ मुख्य निर्देश दिये हैं—
1) सदा सत्य बोलना‚ 2) परस्त्री को मातृज्ञान करना‚ 3) पिता–माताओं को भक्ति करना‚ 4) जगत को प्रेमदान करना‚ 5) जातिभेद न करना‚ 6) किसी को धर्मनिन्दा न करना ‚ 7) बाह्य अंग से साधुसाज त्याग करना‚ 8) श्रीहरिमन्दिर प्रतिष्ठा करना‚ 9) षड़रिपुयों से सावधान रहना‚ 10) हाथ से काम और मुँह से नाम करना‚ 11) दैनिक प्रार्थना करना एवं 12) ईश्वर को आत्मदान करना। इस के अलावा विभिन्न समय पर उन्होने अपने भक्तों को बहुत उपदेश भी दिये थे।
मतुयाधर्म में माता–पिता पहली और प्रधान ईश्वर हैं। वे ही सृष्टिकर्ता हैं। वे प्रजनन के माध्यम से सृष्टि की निरंतरता बनाये रखते हैं। सन्तान के भितर उनका पुनर्जन्म होता हैं। सन्तान का लालन–पालन करते हुए उन्हे बड़ा करते हैं। सन्तान के भी प्रधान कर्तव्य हैं माता–पिता की सेवा करना‚ उनके सुख–दुःख में उनकी देखभाल करना‚ उनके अभाव–अभियोग का सबसे पहले समाधान करना।
हरिचाँद ठाकुर कभी भी युक्तिहीन भक्तिवाद का वाक्य नहीं कहते थे। हरि कहने से उसने वैदिकधर्म का कल्पित वैकुन्ठ के हरि को नहीं समझाये हैं। मतुया दर्शन में हरि अर्थात जिसने सबकुछ हर लेते हैं। सबकुछ बोलने से शरीर की निर्जीवता और हृदय की मलिनता अर्थात हिंसा और घृणा की मानसिकता‚ नीचता आदि जिसके मध्यम से दूरीभूत होता हैं। न्यायपरायनता‚ संयम और निष्ठा‚ चरित्र की समस्त त्रुटियों को दूरीभूत करता हैं। यही समस्त गुण की सम्मिलित शक्तियों की हरि कहा गया हैं।.
दैनिक प्रार्थना कहने से हिन्दुओं की तरह कोई देवदेवीयों के पास आत्मनिवेदन‚ पूजा अथवा कोई कामना का प्रार्थना नहीं‚ अत्युन्नत जीवन चर्चा पर जैसे सुन्दर मनुष्यत्व का बिकाश हो सकता‚ इस लिए निरन्तर अनुशीलन किया जाने को प्रार्थना कहा हुआ हैं।
मतुयाधर्म में ईश्वर की संज्ञा ही अलग हैं। “ये यारे उद्धार करे से तार ईश्वर।” उद्धार अर्थात अधःपतित अवस्था से उन्नततर जीवन में उत्तरण करना। वही ईश्वर का आदर्श पलन करना ही आत्मदान। यहा श्रीश्रीहरिचाँद ठाकुर ही उद्धारकर्ता‚उसके आदर्श अनुसरण करना ही उसको आत्मदान।
मतुयाधर्म वैदिकधर्म या हिन्दुधर्म से संपूर्ण अलग एक धर्म हैं। यहा हिन्दुओं का कोई शाखाधर्म नहीं हैं या उसके साथ इसका कोई संपर्क भी नहीं हैं। हिन्दुधर्म वेद को मानते हैं‚ इस लिए वह वैदिक धर्म हैं‚ लेकिन मतुयाधर्म वेदको मानते नहीं‚ इस लिए यह अवैदिक धर्म हैं। मतुयाधर्म में कोई काल्पनिक देव–देवी का स्थान नहीं हैं या उनकी पूजा करने का भी कोई विधान नहीं हैं। लेकिन दुःख का बात यह हैं कि‚ अनेक मतुयाधर्मी लोगों के घर में विभिन्न पूजा का प्रचलन देखा जाता हैं। श्रीश्रीहरिचाँद ठाकुर के प्रतिकृति के पास विभिन्न देव–देवीयों की प्रतिकृति रखते हुए पूजा–आराधना करते देखा जाता हैं। ऐसा ठिक नहीं। मतुयाधर्म में काल्पनिक
देव–देवीयों की पूजा करना निषिद्ध हैं। इस विषय में गुरुचाँद ठाकुर ने कहा हैं— “मतुयार पक्षे कोनो पूजा–पर्व नाइ।”अर्थात मतुया के लिये कोई पूजा नहीं हैं। किन्तु साधारण मतुयाओं ने अज्ञानता और अभ्यासवशतः ब्राह्मणों की प्ररोचना में सब कुछ करते हैं। कुछ मतूया धर्म की पुस्तकों में भी बिभ्रान्ति भूलक लेखन से साधारण लोगों के भीतर देव–देवी की पूजा करने की भ्रान्त अभ्यास दूर होने के वदले में अधिक प्रचलित होने का झुकाव देखा जाता हैं। यह बेहद अफसोस की
बात हैं।
हरिचाँद ठाकुर को अधिकांश लोग ईश्वर का अवतार कहते हैं। यह समीचीन नहीं हैं। हिन्दुधर्म को छोड़ कर धरती के किसी भी धर्म में अवतार नहीं हैं। अवतार ब्राह्मण ऋषियों के द्वारा दिया गया एक काल्पनिक चातुर्यपूर्ण उपाधि हैं। प्रकृत पक्ष में मूलनिवासी भारतीयों के भीतर जिन्होने आर्य–ब्राह्मणों को पक्षावलम्बन करते हुए उनके स्वार्थरक्षा के लिए मूलनिवासीयों को नृशंसता के साथ हत्या किया करते थे‚ उनके रक्षणावेक्षण में अकातर अर्थब्यय और समाज में सब से ऊर्ध्व में प्रतिष्ठित किया हैं‚ आर्य–ब्राह्मणों ने उनको “अवतार”उपाधि दिये थे। राम‚कृष्ण आदि इसी के उदाहरण हैं। जब मतुयाधर्म हिन्दुधर्म से स्वतन्त्र एक धर्म हैं‚ तब अवतार कहने का कोई कारण नहीं। हरिचाँद ठाकुर रक्तमांस से गड़ा हुया एक महामानव‚ बिप्लवी संग्रामी‚मतुयाधर्म के प्रतिष्ठाता हैं। बौद्धधर्म का प्रतिष्ठाता गौतम बूद्ध को भी हिन्दुयों ने धोँका देने के लिए अवतार कहते रहे। किन्तु उनको अनुगामी बौद्धों ने यह नही कहते हैं।
॥ चतुर्थ परिच्छेद ॥
मतुयाधर्म की मुख्य विशेषताएं हैं— सत्य-प्रेम-पवित्रता, साम्य–मैत्री–भ्रातृत्व‚ सब के प्रति प्रेम‚किसी को छोटा या नीच नहीं सोचना‚ सब के लिए समान स्वाधीनता‚ समान अधिकार, काल्पनिक कोई ईश्वर का संधान नहीं करना‚ लोगों तथा जीवसेवा के माध्यम से ईश्वर दर्शन की भावना इत्यादि।
मतुयाधर्म अनेकांश में भारत के प्राचीन सनातनधर्म और बौद्धधर्म का अनुसरण करता हैं। फिर भी उससे और सहज‚सरल‚गृहधर्मी‚ युक्तिवादी और विज्ञान सम्मत किया गया। प्राचीन सनातनधर्म के साथ मतुयाधर्म का बहुलांश में मिल देखा जाता हैं। साम्य और न्याय–नैतिकताओं की भित्ति करते हुए आदि सनातनधर्म में वर्णभेद नहीं था‚ जन्मगत कारण से कोई ऊँचा‚कोई नीचा नहीं था। समाज में समस्त बिषय पर सब को समानाधिकार था। मतुयाधर्म भी यही सब की भित्ति से प्रवर्तित हुया। इस लिए इस धर्म को “सूक्ष्म सनातनधर्म” नाम से अभिहित किया जाता हैं। प्रकृतपक्ष में यह नाम सठिक रूपसे मतुयाधर्म के साथ प्रयोज्य हैं।
वैदिक या हिन्दुधर्म को कभी भी सनातनधर्म कहना ठिक नहीं। हिन्दु अगर अपने धर्म को सनातनधर्म बोलते हैं तो भी यह प्रकृत सनातनधर्म नहीं हैं। क्योंकि‚ वैदिकधर्म के मूल नीतियों में ऊँच–नीच‚ वर्णप्रथा और जात–पात का भेद हैं। वैदिकधर्म एक असाम्य का धर्म हैं। प्राचीन सनातनधर्म में असाम्य का कोई स्थान नहीं था। इसके अलावा विभिन्न समय पर वैदिकधर्म का इतना परिवर्तन‚ परिवर्धन एवं परस्पर विरोधी मतवादों द्वारा बेकार किया गया कि‚ उसका सनातनत्व कोई अवशिष्ट नहीं हैं। प्राचीन प्राकृत सनातनधर्म के सम्पूर्ण विपरीत हैं यही वैदिकधर्म।
मतुयाधर्म बौद्धधर्म का एक नव संस्करण हैं। इसका समर्थन हमने “श्रीश्रीहरिलीलामृत” ग्रन्थ के भीतर देख पाता हैं‚ जहां कवि तारकचंद्र सरकार ने कहा हैं—
“बुद्धेर कामना ताहा परिपूर्ण जन्य।
यशोमन्त गृहे हरि हैल अवतीर्ण॥”
यह बुद्ध बोलने से गोतम बुद्ध को समझना होगा। अर्थात गौतम बुद्ध के आदर्श प्रचार करने के लिए हरिचाँद ठाकुर ने उसके यह महान अवैदिक धर्म प्रवर्तण किये थे। धर्म प्रचार का साथ–साथ इस जाति का उन्नतिकल्प में और अपना प्राचीन ऐतिह्ययों को लैट पाने के लिए सब के अन्दर शिक्षाप्रसार की आवश्यकता हैं। यह उपदेश भी दे रहे थे। अवश्य शिक्षादान के लिए उसने स्वल्पकालीन जीवद्दशा में तदानिन्तन परिबेश–परिस्थितियों के भीतर खासतौर से कुछ नहीं कर पाए। किन्तु सबको जैसे उपदेश दिये गये‚ ऐसे ही उसने उसके इस अपूर्ण काम को पूर्ण करने के लिए पुत्र गुरुचाँद ठाकुर को निर्देश दिये।
हरिचाँद ठाकुर के द्वारा प्रचारित मतुयाधर्म के महान आदर्श में उद्वुद्ध होते हुए तेली, माली, कामार‚ कुमार‚ माहिष्य‚ जेले‚ मालो‚ कपालि आदि बंगाल के समस्त अनुन्नत सम्प्रदायों के लोगों ने मतुयाधर्म ग्रहण करना आरंभ नहीं किया बल्कि कायस्थ, वैद्य‚ ब्राह्मण, ख्रिस्टान‚ मुसलमान आदि जातिधर्म के लोगों ने भी यही धर्म ग्रहण करना आरंभ किया।
मतुयाधर्म में गुरुगिरि एवं दीक्षा देने का या लेने का कोई प्रथा नहीं हैं। मतुयाओं के एकमात्र गुरु हरिचाँद ठाकुर हैं। मतुयाधर्म में तीर्थभ्रमण करने को भी निषेध किया गया हैं। अहेतुक अर्थ खर्च द्वारा तीर्थभ्रमणों से कोई लाभ नहीं होता। इसमें केवल ब्राह्मणों का हीं लाभ होता हैं। बदले में समस्त धर्म–कर्म अर्थात सत्काज‚ सत्चिन्ता‚ लोगों को सेवा करना घरमें रहते हुए करने का निर्देश दिया गया हैं। इस लिए मतुयाधर्म को गृहस्थ धर्म कहा जाता हैं। हरिचाँद ठाकुर कहते हैं—
“दीक्षा नाइ करिबे ना तीर्थ पर्यटन।
मुक्तिस्पृहा शू्न्य नाइ साधन भजन॥”
कुछ मतुया गोँसाइयों ने “महर्षि”‚ गोस्वामी”‚ “आनन्द”‚ “महाराज” आदि ब्राह्मण्यधर्मी उपाधि स्वयं धारण करते हुए गुरु बन कर दीक्षा देने में लगे हैं। किन्तु ये सबकुछ को मतुयाधर्म अनुमोदन नहीं देते हैं। ये सबकुछ मतुयाधर्म में संपूर्ण निषिद्ध हैं। जो ऐसा करते हैं‚वे हरि–गुरुचाँद के धर्म–दर्शन के बारे में न सोचते हुए वैदिकधर्म का अनुसरण करते हुए इस प्रकार का कार्य करते रहें या फिर चालाकी के साथ साधारण लोगों को छल कर धोँका देते हुए अर्थ उपार्जन या अनैतिक सुविधा वसुल किया करते हैं। उनके लिए उचित हैं‚मतुयाधर्म का दर्शन सठिक रूपसे उपलब्धि करना‚ मन–प्राण से असली मतुया होते हुए अबिलम्ब में ये छोड़ देना।
आजकल लोगों ने मतुयाधर्ममत से आनुष्ठानिक क्रियाकर्म करने के लिए पुस्तके लिखी हैं। उसमें गुरुपूजा एवं अंजलि‚ नैबेद्य आदि के लिए बांगला हरफ में संस्कृत भाषा में मंत्र लिखा हैं। इसमे उनको मूर्खता का परिचय मिलता हैं। जिस धर्म में गुरु का कोई अस्तित्व नहीं हैं‚पूजा का कोई स्थान नहीं हैं‚वह कैसे हो सकता हैं? फिर मी संस्कृत भाषा में लिखा क्यों? संस्कृत क्या मतुयाओं की भाषा हैं? हरिचाँद ठाकुर क्या संस्कृत में बात करते थे? ये समस्त ब्राह्मण्यवादी कुसंस्कार
भिन्न अन्य कुछ नहीं। यहा करने का एक ही अर्थ होता हैं‚वह हैं—मतुयाधर्म को ब्राह्मण्यवादी बनान। इस से केवल पैताधारी (जनेउधारी) ब्राह्मणों का ही बहिष्कार हुआ हैं। वैदिक संस्कार— हरिचाँद ठाकुर
जिसका घोरतर बिरोध करते थे‚ उससे बाहर होते हुए संपूर्ण मतुयाधर्ममत से क्रिया नहीं होता हैं।
हमको याद रखना होगा कि‚मतुयाधर्म और हिन्दुधर्म एक नहीं हैं। हिन्दुधर्म वैदिकधर्म
हैं और मतुयाधर्म अवैदिकधर्म हैं। हिन्दुधर्म के साथ इसका ज़मीन–आसमान का अंतर हैं। नीचे कुछ प्रधान अंतर का उल्लेख किया गया हैं—
1) मतुयाधर्म हिन्दुधर्म से अलग होता हैं‚ इसका बड़ा प्रमण— “वेदविधि नाहि माने मतुयारगण।” अर्थात वेद के विधान को मतुयायों नहीं मानते। वेद हिन्दुओं का आसली धर्मग्रन्थ एवं सर्वजनमान्य हैं। हिन्दुओं के अनुसार वेद अभ्रान्त हैं एवं वेद संपर्क में कोई प्रश्न करना उचित नहीं हैं। इसलिए हिन्दुधर्म का अर्थ वैदिकधर्म हैं। जो वेद को मानते नहीं‚ वो कैसे हिन्दु होगा? यह नितान्त अमूलक हैं।
2) हिन्दु तथा ब्राह्मण्य–दर्शन में एक मतबाद हैं— आत्माओं के मुक्ति लाभ के लिए वैदिक यज्ञ और धर्मीय अनुष्ठान यथायथ रूप से संपन्न करना एवं ब्राह्मणों को भेंट आदि दान करना। यगयज्ञ करना अर्थात बलिदान प्रथा अर्थात जीवहत्या करना। जीवहत्या एवं ब्राह्मणों
को दान करने से धर्मलाभ तथा मुक्तिलाभ होता हैं‚ यहा ठाकुर हरिचाँद नहीं मानते हैं।
3) ब्राह्मण्य–दर्शन में और एक मतबाद हैं— चतुबर्ण व्यस्था। ये हैं ब्राह्ण‚ क्षत्रिय‚ बैश्य और शूद्र— यह चार वर्णीय समाज व्यवस्था। यह वेद में हैं। जिसके लिए वेद अभ्रान्त एवं वेद का कर्तृत्व प्रश्नातीत‚इसके लिए समाज व्यवस्था भी अवश्य पालनीय एवं प्रश्नातीत। यह समाज
व्यवस्था में साम्य नहीं रहेगा। सर्वोच्च स्थान पर रहेगा ब्राह्ण। ब्राह्ण के नीचे क्षत्रिय, किंतु वे अवश्य रहेगा बैश्य के उपर। बैश्य क्षत्रिय के नीचे, किंतु शूद्र के उपर रहेगा। और शूद्र रहेगा सबसे नीचे। किंतु मतुयाधर्म में वर्णव्यवस्था नहीं‚ सुतरां उच्च–नीच का भेदभाव भी नहीं। मनुष्य सब समान होते हैं।
4) ब्राह्मण्य समाज व्यवस्था में प्रत्येक बर्णों के पेशो भी निर्दिष्ट कर दिये गये हैं। ब्राह्मणों का पेशा शिक्षालाभ करना और शिक्षादान करना एवं धर्मीय अनुष्ठान उद्यापन करना। क्षत्रियों का पेशा युद्ध करना एवं राज्यशासन में अंशग्रहण करना। बैश्यों का पेशा वाणिज्य और कृषिकार्य एवं शूद्र का पेशा अन्य तीन वर्णों की सेवा करना। इन सभी पेशे में कोई परिवर्तण नहीं चलेगा। बंश परंपरा में ये चलते रहेंगे। इसे छोड़ते हुए शिक्षाके अधिकार से समग्र नारी समाज और शूद्रों को वंचित किया गया हैं।
किंतु मतुयाधर्म में नारी–पुरुष सब के समान अधिकार स्वीकृत हैं। सब को विद्याशिक्षा का अधिकार हैं। बल्कि शिक्षाहीनों को शिक्षा के लिए अधिक जोर दिया जाता हैं। वर्ण विभाजन नहीं होने के कारण योग्यता अनुसार कोई भी पेशा ग्रहण कर सकते हैं। वंशगत या पुरुषानुक्रम रूप में ही पेशा ग्रहण करना होगा ऐसा कोई नियम नहीं हैं।
5) वैदिकधर्म युक्ति–विज्ञान वहिर्भूत मिथ्या कल्पना के आधार पर प्रतिष्ठित हैं। वर्णभित्तिक समाज व्यवस्था का यह धर्म में सब से उपर ब्राह्मण होने के कारण इसका और एक नाम ब्राह्मण्यधर्म। इस धर्ममत में ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों, बाहु से क्षत्रियों‚उरू से बैश्यों एवं पाँव से शूद्रों की सृष्ठि हुई हैं। वेद‚ ब्राह्मण‚ गीता‚ भागवत‚ रामायण‚ महाभारत आदि शास्त्रग्रन्थ में वर्णवाद का विषय हैं। मूल में चार वर्णीय होने के बाद भी ये वर्ण हजार हजार जातियों (छः हजार से अधिक) में विभक्त हैं। एक जाति को अन्य जाति के साथ विवाहादि या कोई सामाजिक क्रिया नहीं करते। एक जाति को अन्य
जाति से अन्न ग्रहण नहीं करता। सब कुछ में विभेद हैं। निम्नवर्ण का हिन्दु कितना ही चरित्रवान‚ आध्यात्मिक ज्ञासंपन्न ही क्यों न हो वह कभी भी कोई भी ब्राह्मण के समकक्ष नहीं हो सकता। धर्मीय काम का केवल अधिकारी हैं ब्राह्मण। इसके अलावा निम्नवर्ण के लोगों को वेदपाठ का अधिकार भी नहीं हैं। वेद को मान सकते हैं‚ परन्तु पढ़ नहीं सकते— यह बात परस्पर विरोधी होता हैं। ब्राह्मण वेद की वाणी बोल कर जो कुछ कहेंगे वही मानना होगा। सत्य–मिथ्या जानने का किसी का कोई अधिकार नहीं हैं। फिर इस लिए चमतकार व्यवस्था भी रखा हुआ हैं— शिक्षित होने के बाद कोई भी वेद पढ़ सकते हैं‚ इस लिए विद्या सिखना भी मना हैं।
6) वैदिकधर्म में नारी नरक का दरवाजा हैं। धर्मकर्म में उनका कोई स्थान नहीं हैं। शूद्रों के समान नारीवृन्द को वेदपाठ और श्रवण करने का अधिकार नहीं हैं। हरिचाँद ठाकुर ने कहा हैं— “भेदाभेद ज्ञान नाइ नारी कि पुरुष।” अर्थात पुरुषों और नारीवृन्द के बीच में कोई विभेद नहीं हैं। फिर कहते हैं— “करिबे गार्हस्थ्य धर्म लये निज नारी।”अर्थात निज पत्नी को साथ में लेते हुए धर्मकर्म करना होगा।
7) हिन्दुधर्म में अस्पृश्यता हैं। निम्नवर्णों को अनेक सम्प्रदायों एवं आदिवासी श्रेणी के लोगों में उच्चवर्ण हिन्दुओं के पास अस्पृश्य हैं। उनको स्पर्श करने से पाप होता हैं‚ जाति की हानि होती हैं! जाति में फिर उठने के लिए ब्राह्मण को दक्षिणा देते हुए‚ पशु का बिष्ठा (गोबर) खाने के बाद प्रायश्चित्त करना पड़ता हैं। हिन्दुधर्म के विधानदाता मनु ने शूद्रों औ रअस्पृश्यों के संबंध में लिखा हैं— “वेदपाठ‚ श्रवण करने से शूद्र के कान गलित (melted) लोहा‚ सीसा या लाक्षा से बंद कर दिया जायेगा; उच्चारण करने से जीभ काट दिया जायेगा; यदि मुखस्थ हुआ तो उसका शरीर काट कर द्विखण्डित करना पड़ेगा।” पराशर संहिता में कहाँ जाता हैं की‚ “ब्राह्मणों के जन्म होने के साथ ही देवताओं के भी पूज्य होते हैं। सर्ब प्रकार पापी होने के बाद भी ब्राह्मणों को कभी हत्या नहीं करना।” हिन्दुशास्त्रों में सर्वत्र ब्राह्मणों का गुणगान किया हैं। “निकृष्ट ब्राह्मण ज्ञानी शूद्र से भी श्रेष्ट होता हैं।” मतुयाधर्म में जातिभेद प्रथा नहीं हैं। मतुयाओं के आँखों में सब मनुष्य समान हैं। जन्म से कोई घृण्य या पूज्य नहीं होता‚ पूज्य होता हैं कर्म से। ब्राह्मण नाम से कोई विशेष अधिकारभुक्त मनुष्य मतुयाधर्म में नहीं हैं। मतुयाधर्म में परम पुरुषार्थ हैं प्रेम। प्रेम से प्रेममय को मिलता हैं।
8) हिन्दुधर्म के लोग भिन्न धर्म को ग्रहण कर सकते हैं; लेकिन भिन्न धर्म के लोग हिन्दुधर्म को ग्रहण नहीं
कर सकते। यह हिन्दुधर्म का विधान हैं। इस विधान को मतुयायी नहीं मानते। अन्य धर्मे के लोगों ने हरिचाँद ठाकुर के आदर्ण पालन तथा हरिनाम का आश्रय लेते हुए मतुया हो सकते हैं।
इसके अलावा हिन्दुधर्म और मतुयाधर्म के मध्य और भी अंतर हैं‚ जिसको मतुयायी नहीं मानत हैं या सठिक रूप से जानते भी नहीं। मतुयाओं को वैदिक ब्राह्मणों से धर्मकार्य संपन्न करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। हरिचाँद –पुत्र गुरुचाँद ठाकुर ने कहा हैं— वेदविधि‚ शौचाचार‚ तंत्रमंत्र‚ शुभाशुभ— ये इनमे बिश्वास नहीं करते। उसने मतुयाओं को ये सब को बर्जन करने को निर्दश दिये थे। यागयज्ञ‚सन्न्यास या बानप्रस्थ की भी कोई आवश्यकता नहीं। ब्राह्मण गुरु के पास दीक्षा लेना या तीर्थभ्रमणों की भी आवश्यकता नहीं। उन्होने घर में रह कर निष्ठा के साथ गृहस्थ धर्म पालन करने के निर्देश दिये हैं।
प्रकृतपक्ष में ब्राह्मण्यवादी भारतबर्ष में मतुयाधर्म का प्रवर्तन— वेद‚ ब्राह्मण‚ यागयज्ञ विरोधी एक धर्म आन्दोलन या धर्म बिप्लब भिन्न अन्य कुछ नहीं हैं। जातपात‚धर्मवर्ण‚ संप्रदाय आदि के विरुद्ध में हरिचाँद
ठाकुर द्वारा एक युद्ध घोषणा। मतुयाओं के प्रत्येक लोगों में इस युद्ध का एक–एक सैनिक हैं‚ इस युद्ध में नर और नारीवृन्द ने समान मर्यदा पर प्रतिष्ठित हैं।
मतुयाधर्म का त्रिकोण लाल रंग का पताका के तीन पार्श्व में सफेद प्रान्त रेखा हैं। लाल अर्थात् विप्लव या अग्रगति के लिए युद्ध और सफेद अर्थात् शान्ति का प्रतीक हैं। प्रकृतपक्ष में सम–अधिकार भित्तिक सब के साथ शान्ति से सहावस्थान के लिए विप्लव। समाज के अस्पृश्यता‚ असाम्य‚ कुसंस्कार‚ अमानविकता और मानवीय भेदाभेद दूर करने के साथ साम्य प्रतिष्ठा करने के लिए विप्लव। फिर विप्लव या युद्ध जय का परतीक जैसे मतुयाओं के हाथ का झंडा— यह प्रकृत में विजय झंडा हैं— ऐसा यह युद्ध जय का घोषणा तथा उन्मादना को अधिक लोगों के पास भेजने और उद्बुद्ध करने के लिए ध्वनित होता हैं जयडंका‚ काँसर और शिंगा की ध्वनि।
समस्त मनुष्यों का समान अधिकार होना ही मतुयाधर्म का मूल उद्देश्य हैं। हरिचाँद ठाकुर ने इस विषय पर सब से अधिक जोर दिया था। नारी और पुरुष के लिए समाज में जो वैषम्य विद्यमान था उसके विरुद्ध में उसने गर्जन किया था। वैदिक धर्ममत में नारी नरक का द्वार हैं। इसका विरोध करते हुए वे बोले— नारी की अवज्ञा करने से आदर्श गृहस्थ धर्म प्रतिष्ठा किया नहीं जाता हैं। नारी गृह की केन्द्रभूमि हैं। नारी को छोड़ कर संसार की कल्पना नहीं की जा सकती। नारी को साथ ले कर धर्मपथ में अग्रसर होना चाहिए। “एक नारी‚ ब्रह्मचारी।” इस लिए उसने नारीशिक्षा‚ नारी की मर्यादा और अधिकार रक्षा करने के लिए सब को निर्देश दिया था।
कुछ लोगों ने कहा हैं‚ हरिचाँद ठाकुर ने वैष्णवधर्म का संस्कार करते हुए मतुयाधर्म को प्रवर्तित किया हैं— इस बात में कोई सत्यता नहीं हैं। वैष्णव पहले जहां थे आज भी वही हैं। हरिचाँद ठाकुर जानते थे कि ब्राह्मण्य धर्म का संस्कार करना संभव नहीं। क्योंकि‚ स्वार्थान्वेषी ब्राह्मण्यवादी कभी उनके धर्मका संस्कार नही मानेंगे। इस लिए उन्होने धर्महीनों के लिए एक नया धर्म प्रवर्तन किया हैं। वैष्णवों को कटाक्ष करते हुए उसने कहा हैं—
“पापेर बेसाति सब झोलार भितर।
झोला फेले खोला हये नाम करो सार॥”
इसका अर्थ हैं— झोला के अंदर पाप का व्यापार हैं‚ झोला छोड़कर खुले मन से नाम करना होग। नाम अर्थात् हरिचाँद ठाकुर के
आदर्श स्मरण करना पड़ेगा।
अन्यत्रकहाहैं—
“कोथाय ब्राह्मण देखो कोथाय वैष्णव।
स्वार्थबशे अर्थलोभी यत भण्ड सब॥
तंत्रमंत्र भेक झोला सब धाँधाबाजी ।
पवित्र हृदय रेखे हओ काजेर काजि॥”
मतुयाधर्म संबंध में श्रीश्रीहरिलीलामृत के ग्रन्थकार तारकचन्द्र सरकार ने कहा हैं—
“माला टेपा फोँटा काटा जल फेला नाइ।
हाते काम मुखे नाम मन खोला चाइ॥”
कुछ लोगों ने कहा हैं— हरिचाँद ठाकुर के पूर्वसूरि थे श्रीचैतन्य। इन्होने नया अवतार लेकर हरिचाँद रूप मे जन्म लिया था। यह समस्त अत्यन्त मिथ्या कल्पना प्रसूत हास्यकर कथन मात्र हैं। मतुयाधर्म में जैसा अवतारवाद का कोई स्थान नहीं हैं। इस बात का कोई सत्यता नहीं हैं। हरिचाँद ठाकुर और श्रीचैतन्य के धर्मान्दोलन के भीतर प्रभूत अंतर परिलक्षित होता हैं। उनके अंदर धर्मीय‚ सामाजिक और चरित्रगत विषयों पर बहुलांश में भिन्नता देखा जाता हैं।
यह ठिक हैं कि हरिचाँद ठाकुर एवं श्रीचैतन्य दोनो ही ऊँच–नीच बिभेद न करते हुए सबके लिए मानवीय मर्यादा प्रतिष्ठा का प्रयास किया। किंतु चैतण्य ने मानवीय मर्यादा प्रतिष्ठा के लिए वैदिक आचार‚ यागयज्ञ‚ पुरोहिततंत्र आदि को नहीं छोड़ा। इस लिए वे यवन हरिदस को मंदिर के अंदर नहीं ले सकते थे। बल्कि उसने स्वयं ब्राह्मण के बिना अन्य किसी के हाथ से अन्न ग्रहण नही करते थे। इसके अलावा उसने कर्मबिमुख वैष्णव समाज सृष्टि करने को उत्साह दिया था। हरिचाँद ठाकुर और चैतण्य में मूल अंतरों को यहां उल्लेख किया गया हैं
—
1) हरिचाँद ठाकुर का जन्म नमःजाति के घर में; चैतन्य का जन्म ब्राह्मण बंण में हुया था।
2) हरिचाँद ठाकुर गृहीथ‚ आदर्श गृहस्थ प्रथा और उसका आनन्द लेने के साथ त्याग करना उनका मार्ग हैं; चैतन्य ने गृहत्यागी एवं सन्न्यासी थे‚ वैराग्य उनका साधना का मार्ग था।
3) हरिचाँद ठाकुर ने तीर्थभ्रमण करने का विरोध किया हैं; चैतन्य ने अनेक तीर्थभ्रमण किया था।
4) हरिचाँद ठाकुर ने दीक्षामंत्र और गुरुवाद का विरोध किया हैं; किंतु चैतन्य दीक्षामंत्र
और गुरुवाद के पक्ष में थे।
5) हरिचाँद ठाकुर ने ब्राह्मण्यतंत्र‚ शास्त्र और शास्त्रकारों के विरुद्ध में आवाज उठाये थे; किंतु चैतन्य ने हर समय उनके पक्ष में थे।
6) हरिचाँद ठाकुर अपने पत्नी को साथ में लेकर गृहस्थधर्म पालन करने को कहा हैं। किंतु चैतन्य ने अपनी पत्नी को छोड़कर परकीया साधना किये थे।
इस प्रकार‚ निःसन्देह कहा जाता सकता हैं कि हरिचाँद ठाकुर और चैतन्य
ने परस्पर विरोधी अवस्था में थे। क्योकि हरिचाँद ठाकुर
का धर्ममत स्वतंत्र— अवैदिक मतुयाधर्म एवं चैतन्य वैदिकधर्मी थे।
ऐसा नहीं हैं कि हरिचाँद ठाकुर के धर्मान्दोलन में केवल नमः‚ कपालि‚ माहिष्य‚ पौण्ड्र (पोद)‚ तेली‚ माली‚ ग्वला‚ मालो‚ मोची प्रभृति अनुन्नत श्रेणी के लोग उनके भक्त हुए थे बल्कि समाज के सर्बस्तर के मनुष्य भी आकृष्ट हुए थे। उनके साम्य का आदर्श में अनुप्राणित होकर वर्णाभिमान छोड़ के तथाकथित उच्चवर्णीय हिन्दुओं के अनेक लोग उनके भक्त हुए थे। जिसके भीतर अक्षय चक्रवर्ति‚ मुन्सेफ रसिक सरकार‚ रामचंद्र मिश्र‚ नवीन बसु प्रमुख का नाम उल्लखयोग्य हैं।
हरिचाँद ठाकुर के दो पुत्र एवं तीन कन्यासन्ताने थी। पुत्रों के नाम यथाक्रम में गुरुचरण और उमाचरण। ज्येष्ठपुत्र गुरुचरण ने परवर्ती समय में गुरुचाँद ठाकुर से समाज में परिचित हुए थे। उसनेआजीवन मतुयाधर्म के प्रचार और प्रसार के काम में स्वयं को नियोजित किया था। पिता के निर्दश में उसने दलित–पतितों के भीतर शिक्षा विस्तार के काम में आत्मनियोग किये। प्रकृतपक्ष में हरिचाँद ठाकुर ने उसके स्वल्पकालीन जीवद्दशा में जो काम संपूर्ण कर नहीं सके‚ गुरुचाँद ठाकुर ने पिता के वही अपूर्ण काम का समाधान किया। उसने दलित–पतित मनुष्यों के लिए देशव्यापी एक विशाल शिक्षा–आन्दोलन आरंभ किया था। उनके प्रयास के परिणाम स्वरूप अविभक्त बंगदेश में लगभग दो हजार के आसपास विद्यालय प्रतिष्ठित हुए थे।
हरिचाँद ठाकुर केवल 66 वर्ष जीवित थे। 1878 ख्रिस्टाब्द (1284 बंगला) का 13 मार्च प्रातःकाल में वे प्रयात हुए। उनके जन्मदिन की तरह उस दिन भी बुधवार था। मृत्यु के पहले उन्हने असमाप्त काम का दायित्व ज्येष्ठपुत्र और एक महामानव गुरुचाँद ठाकुर के उपर अर्पण किये गये हैं। गुरुचाँद ठाकुर ने पूर्ण निष्ठा के साथ उसके पिता के निर्दश अक्षर से अक्षर पालन किया।
हमे आश्चर्य गौर किया हैं कि‚हरिचाँद ठाकुर के जैसे एक महामानव का नाम बंगाल तथा भारत के इतिहस में कोई स्थान नहीं दिया गया हैं। केवल यही एक ऐसा नहीं‚ इतिहास में अनुन्नत सम्प्रदायों में कोई महामानव का नाम देखा नहीं जाता है। उसका कारण क्या हैं? तब क्या इनके भीतर कोई महामानव जन्मग्रहण किया नहीं था? थोड़ा गंभीता के साथ अनुधावन करने से यह साफ हो जायेगा।
विदेशी आर्य–ब्राह्मणों ने इस देश में आने के बद वैदिकधर्म को प्रतिष्ठित किया था। यागयज्ञ‚ मंत्रतंत्र, पूजा–पर्व‚ श्राद्धादि क्रिया‚ परलोक‚ स्वर्ग–नरक आदि का भय देते हुए मूलनिवासी भारतीयों की चिरस्थायी शोषण की व्यवस्था की और विपथ में चालित किये थे। मूलनिवासी लोगों को शूद्र नाम दिया‚ इनको अस्पृश्य किया और शिक्षा‚ सम्पत्ति एवं अन्यान्य समस्त अधिकार से हजार–हजार साल तक वंचित करके रखा। हरिचाँद ठाकुर ने देश के ब्राह्मण्यवादी समाजपतियों के बिरुद्ध में धर्मान्दोलन किया था। भेदाभेद सृष्टिकारी वैदिकधर्म का बिरुद्ध एक साम्यवादि धर्मका प्रवर्तन भी किये थे। उसने एवं उसके पुत्र गुरुचाँद ठाकुर ने उनके कर्म से यह मूलनिवासी पतित‚ अस्पृश्य मनुष्यओं को विद्याशिक्षा और ज्ञान अर्जन के लिए उद्वुद्ध किए थे। इस लिए व्यापक प्रचार–प्रसार की व्यवस्था भी किया गया था। मूल में वह सब लोगों की उन्नति के लिए प्रयासत् थे। यह ब्राह्मण्यवादीयों
के स्वार्थ का परिपन्थी था। अभी भी भारतवर्ष की मूल क्षमता में ब्राह्मण्यवाद में अनुप्राणित शासकवृन्द अधिष्ठित हैं। इतिहास रचयिताओं ने भी वही ब्राह्मण्यवादी जनगोष्ठी के लोगों ने। वे जानता हैं कि हरि–गुरुचाँद भावादर्शमें शिक्षितहोनेका अर्थ‚ आसली सत्य को जानना एवं उनके स्वार्थहानि का पथ प्रशस्त होना। इस लिए कभी भी किसी प्रकार से वर्णहिन्दुओं ने हरिचाँद
ठाकुर और उसके पुत्र गुरुचाँद ठाकुर के नाम को इतिहास में स्थान नहीं दिया हैं। ठिक इसी प्रकार से अनुन्नत सम्प्रदायों का अन्यान्य महामानवों के नाम भी इतिहास में लिखा गया नहीं हैं।
॥ पंचम परिच्छेद ॥
हरिचाँद ठाकुर के जीवनी अवलंबन में सर्वप्रथम कवि रसराज तारकचंद्र सरकार ने एक ग्रन्थ लिखा हैं। ग्रन्थ का नाम “श्रीश्रीहरिलीलामृत”। तारकचंद्र सरकार एक कवियाल थे। हरिचाँद ठाकुर के परम भक्त दशरथ बिश्वास और मृत्युञ्जय बिश्वास के अनुरोध पर वे उस ग्रन्थ को लिखने का सहमत हुए। ग्रन्थ का नाम पहले था“श्रीहरिचरित्रसुधा”। बाद में गुरुचाँद–पुत्र शशिभूषण ठाकुर ने नाम रखा “श्रीश्रीहरिलीलामृत”। पहले हरिचाँद ठाकुर के जीवितकाल में ग्रन्थ लेकर उसको पढ़ कर सुनाने से वे गुस्सा होकर ग्रन्थ को फेंक दिया करते थे‚ क्योकि वैदिक भावधारा में पुष्ट वही लेख ठाकुर के मनःपुत नहीं हुया था एवं जीवितकाल में किसी भी व्यक्ति का जीवनी ग्रन्थ लिखना उचित नहीं हैं। उसके बाद अनेक बर्ष तक वह ग्रन्थ मुद्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया था। परवर्तीकाल में हरिचाँद ठाकुर के मृत्यु के बाद वह ग्रन्थ छापने का प्रचेष्टा शुरु हुआ।
किंतु दुःख की बात यह हैं कि तारकचंद्र सरकार द्वारा लिखित मूल पाण्डूलिपि छपना संभव नहीं हुआ क्योंकि उस समय के बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय
द्वारा प्रतिष्ठित भाषा सप्तसती समिति ने अनेक स्थान पर आपत्ति किया और प्रकाश के लिए छाड़पत्र नहीं दिया। उस समिति ने वह स्थानों पर लेख को परिवर्तित करने का निर्देश दिया। इसके अलावा प्रकाशकों में भी अधिकांश तथाकथित उच्चबर्णीय लोग थे। किंतु श्रीश्रीहरिलीलामृत ग्रन्थ वैदिकधर्म के विरुद्ध में अवैदिक मतुयाधर्म के विषय पर लिखा हुआ था‚ उसके साथ उच्चबर्णीय मनुष्यों द्वारा अत्याचार निपीड़न का इतिहास‚ निम्नबर्णीय मनुष्यों के अधिकार आदाय करने का संग्रामी दलिल। इस लिए पहले यह ग्रन्थ छापना संभव नहीं हुआ। उस समय तारकचंद्र सरकार जीवित नहीं थे। इस लिए अन्य एक कवियाल हरिबर सरकार ने वह परिवर्तन का काम किया। तथापि प्रेस का कर्मकर्ता को बीस रूपये रिश्वत देने के बाद 1916 ख्रिस्टाब्द में वह ग्रन्थ कोलकाता के 5 नं छिदाम मुदि लेन, दर्जिपाड़ा के शास्त्र प्रचार प्रेस से छापा गया। ग्रन्थ प्रकाश का समस्त खर्च गोपाल हाऔलादार ने दिया। वे गोपाल साधु नाम से परिचित थे। कवियाल हरिबर सरकार ग्रन्थ का प्रकाशक थे।
श्रीश्रीहरिलीलामृत के लेखक कवि तारकचंद्र सरकार वर्तमान बांग्लादेश की यशोहर जिले के जयपुर गांव में 1847 ख्रिस्टाब्द में जन्मग्रहण किए थे। उनके पिता का नाम
काशीनाथ सरकार एवं माता का नाम अन्नदा था। उनके पिता भी कवियाल थे। बाल्यकाल में तारकचंद्र ने छाँतरा गाँव की पाठशाला में पढ़ते थे। पिता कि साथ बाल्यकाल से वे कविगान के दल में थे एवं अनेक शास्त्रग्रन्थ‚ रामायण‚ महाभारत‚ भागवत एवं पुराण आदि के अध्ययन में निविष्ट थे। बाल्यकाल में उनके पितृवियोग होने से वैदिकापुष्ट भावधारा में स्वयं कविगान गाना आरंभ कर दिया था। इस लिए तारकचंद्र द्वारा लिखे हुए ग्रन्थ में अवैदिक मतुयाधर्म का विषय के साथ अनेक स्थान पर वैदिक भावधाराओं को प्रकटित हुआ हैं। परवर्तीकाल में उसने् प्रख्यात कवियाल रूप में तत्कालीन अविभक्त बंगदेश में प्रभूत सुनाम अर्जन किया। हरिचाँद ठाकुर के संवंध में उन्होने दो ग्रन्थ की रचना की थी— श्रीश्रीहरिलीलामृत एवं श्रीश्रीमहसंकीर्तन। श्रीश्रीहरिलीलामृत ग्रन्थ हरिचाँद ठाकुर के मृत्यु का 25 साल बाद नये रूप से लिखा हुआ एवं तारकचंद्र के मृत्यु के दो साल बाद 1916 ख्रिस्टाब्द में पहले प्रकाशित हुआ था।
श्रीश्रीहरिलीलामृत ग्रन्थ के रचयिता तारकचंद्र सरकार ने इस ग्रन्थ में हरिचाँद ठाकुर के अवैदिक मतुयाधर्म के विषय का सविस्तार वर्णन किया हैं‚ लेकिन उसने सठिक रूप से वैदिकधर्म से मतुयाधर्म की स्वतंत्रता को बजाय रखने का व्यर्थ हुआ हैं। एक तरफ़ हरिचाँद ठाकुर के कर्म‚ बाक्य और उपदशावलियों के भीतर सम्पूर्ण वैदिकधर्म का बिरोध करते हुए ज़ोरदार भाषा में प्रकाश किया हैं‚ फिर भी अन्य तरफ़ से उसने मतुयाधर्म को वैदिक तथा ब्राह्मण्यधर्म का अंगीभूत एक नया मतवाद रूप में खड़ा कर दिया। उसने मूलतः वैदिकधर्म के आवर्त में मतुयाधर्म को मिश्रित कर दिया और एक अद्भुत रूप में उपस्थापन किया हैं। परस्पर विरोधी वक्तव्य एवं अवास्तव कल्पना के जाल में वैदिकधर्म के पुराण ग्रन्थ के अनुकरण में हरिचाँद के लीला वर्णन किया हैं। फलस्वरूप मतुयाधर्म को स्वतंत्रता नष्ट हुई एवं मतुयाओं के भीतर विभ्रान्ति की सृष्टि हुई। किंतु हरिचाँद ठाकुर
के कार्यकलाप एवं उपदेशावलियों जो स्वयं तारकचंद्र सरकार ने इसी ग्रन्थ में लिखा हैं‚ वह यदि हमने गंभीरता के साथ अनुधावन किया तो मतुयाधर्म ये एक स्वतंत्र मानवतावादी धर्मं हैं वह समझने में कोई
असुविधा नहीं होगी। क्योकि, वेद को अस्वीकार करते हुए धर्म कभी वेदाश्रित धर्मं
नहीं हो सकता।
प्रकृतपक्ष में तारकचंद्र
सरकार उस समय के एक विख्यात कवियाल थे। तारकचंद्र के पिता भी एक कवियाल थे। यह
पहले ही कहा जा चुका हैं। शिशुकाल से ही वे कवियाल पिता के सान्निध्य में कविगान
गाने वाले परिवेश में बढ़े हुए। कवियालों ने वैदिकधर्म के धर्मग्रंथों जैसे— पुराण, स्मृति, रामायण, महाभारत, भागवत और वैष्णवों
के अन्यान्य ग्रंथों का पाठ कर ज्ञान आहरण कर लेते थे और उसी भावधारा में कविगान
करते थे। मानसिक भाव के चलते
वे कोई भी वैदिकधर्म की मिथ्या धारणाओं को ह्रदय से त्याग नहीं कर सके। उनके रक्तमज्जा में वैदिकधर्म के साथ वैष्णवतंत्र का रस ऐसे मिश्रित
हुया हैं कि वे वही आवर्त में बाहर आ नहीं सके। हरिचांद ठाकुर के
सान्निध्य में मुग्ध होते हुए भी अभ्यास वश वैदिकता के बाहर में तारकचन्द्र आ नहीं
सके। इस लिए अवैदिक मतुयाधर्म का वर्णन करते हुए भी वे वैदिकधर्म के साथ मिश्रित
किया।
श्रीश्रीहरिलीलामृत ग्रन्थ में
अनेक स्थान पर अलौकिक कहानी का उल्लेख करने देखा जाता हैं। वे मूलतः समयोपयोगी
साधारण लोगों को ग्रहण योग्यता के कारन ग्रन्थकार सन्निवेशित कर सकते हैं। क्योकि,
उस समय के (उन्नीस शताब्दी) साहित्य मूलतः भाववादी एवं देवदेवी केन्द्रित था। वही
समय शिक्षाहीन अन्धविश्वासी साधारण लोगों के भीतर ऐसी अलौकिक कहानी का आश्रय के
बिना हरिचांद ठाकुर के आदर्श को प्रचार करना शायद सम्भव नहीं हो सकता था। इसी भाव के चलते
तारकचंद्र सरकार ने श्रीश्रीहरिलीलामृत
ग्रन्थ में अलौकिक घटनाओं को प्रविष्ट किया होगा। इस ग्रन्थ में हरिचांद
ठाकुर के जीवन कहानी लिपिबद्ध करना ही ठीक था, लेकिन अलौकिक कहानी का प्रवेश कराना
ठीक नहीं हुआ। इस कारण से तारकचंद्र
ने ग्रन्थ को अलौकिक दोष में दुष्ट किया, जो उस समय में कौशलगत कारण से शायद
सार्थक हुआ होगा। किन्तु वर्तमान समय में विज्ञान
मनस्क युक्तिनिर्भर मानव समाज के लिए उचित हैं, वही सब अलौकिक कहानियों को बर्जन
करना एवं यथार्थ हरिचांद ठाकुर के असली भावना, आदर्श और उसके दर्शन को ग्रहण करना।
तारकचन्द्र सरकार ने भी उसके ग्रन्थ में सुधीजनों के पास अनुरोध किया हैं की,
उन्होंने पानी को छोड़कर दूध पिएं होंगे। इसके साथ एक बात भी हमको याद रखना होगा
की, तारकचन्द्र सरकार ने इसी ग्रन्थ में नहीं लिखने से हमने हरिचांद ठाकुर और
मतुयाधर्म-दर्शन संपर्क में कुछ नहीं जन सकते। इस लिए हमने श्रीश्रीहरिलीलामृत
ग्रन्थ के लिए तारकचन्द्र सरकार के पास चिरऋणी रहेंगे; उसने हमारे चिरनमस्य होकर
ही रहेंगे।
॥ षष्ठ परिच्छेद ॥
समस्त मनुष्यों के
सम-अधिकार होना ही मतुयाधर्म का मूल उद्देश्य हैं। हरिचांद ठाकुर ने उस विषय पर सब
से ज्यादा जोर दिया था। नारी एवं पुरुष के भीतर समाज में जो बैषम्य विद्यमान था वे
इसको विरोध में थे। वैदिकधर्म का आइण ग्रन्थ मनुसंहिता में नारी के प्रति चरम घृणा
के साथ नारी को नरक का दरवाजा, संतान उत्पादन का क्षेत्र बोला जा रहा हैं। नारी का
अधिकार सुरक्षित करने के लिए हरिचांद ठाकुर ने कहा हैं— नारीवृंद की अवज्ञा करने से आदर्श गार्हस्थ्य धर्म
की प्रतिष्ठा करना संभव नहीं होगा। नारी ही गृह का केन्द्रभूमि हैं। नारी के बिना
संसार नहीं होता हैं। नारे को साथ में लेकर धर्मपथ में अग्रसर होना चाहिए। इस लिए
उसने नारीशिक्षा, नारी की मर्यादा और अधिकार का रक्षा के लिए सब को जोर देनद का
निर्देश दिया हैं। आज ने लगभग दो सौ साल पहले नारी-अधिकार रक्षा के लिए संबंध में
उसने बोला—
"समाजे पुरुष पाबे येइ अधिकार।
नारीओ पाईबे ताहा करिले बिचार॥"
अर्थात समाज में पुरुष को
जो अधिकार मिलेगा, नारे को भी वही अधिकार मिलना चाहिए।
उस समय बहु-विवाह,
बाल-विवाह, सेवादासी इत्यादि से नारी को जो अपमान का शिकार होना पड़ा, उसके विरोध
में वे बोले कि— "एक नारी व्रह्मचारी।"
प्रचलित हिन्दुधर्म में
मनुष्य को भाववादी, आलसी, परजीवि, श्रमविमुख एवं श्रम को हेयज्ञान करने को सिखाया,
संसार को कहा हैं मुक्तिपथ का काँटा, दरिद्रता को कहा हैं भाग्यचक्र का परिणाम।
किन्तु हरिचांद ठाकुर ने कहा—
"अलस लोकेर तुल्य पापी केह नाइ।"
अर्थात आलसी लोगों के
जैसा पापी कोई नहीं हैं। इसके साथ और बोले— "काज करले काजी,
ना करले पाजि।"
तत्कालीन समाज का
वर्णबैषम्य सर्वस्व जातिवाद और कुसंस्कार का जन्मदाता ब्राह्मन्यवादी हिन्दुधर्म
और उसका आचार-आचरण के प्रति अवज्ञा करते हुए उन्होंने कहा—
"कुकुरेर उच्छिस्ट प्रसाद पेले खाइ।
वेदविधि शौचाचार नाहि मानि ताइ॥"
अर्थात समस्त प्राणी को
दया और नाम के (हरिचांद के आदर्श के) प्रति रुचिशील होना, मनुष्यों को कल्याण के
प्रति निष्ठावान होने के बिना अन्य समस्त आचार-अनुष्ठान मिथ्या और निष्फल होता हैं।
वह सब से कोई धर्मलाभ नहीं होता हैं।
हरिचांद ठाकुर ने कहा—
"ब्रह्मत्व सायुज्य मुक्ति कृष्णभक्ते दण्ड।
इरिनामे पापक्षय कहे कोन भण्ड॥"
अर्थात प्रकृत ज्ञानलाभ
के लिए संन्यासी, बानप्रस्थीया ब्रह्मचारी होने कि कोई आवश्यकता नहीं। सदिच्छा
होने से घर में रह कर संसार जीवन के माध्यम से यह महाज्ञान लाभ करना संभव हैं।
हरिनाम करने से पापक्षय होता या मुक्तिलाभ होता हैं यह ठीक नहीं हैं। हरिनाम में
प्रेमप्राप्ति और देह एवं मन शुद्ध होता हैं। सभी आपने से लगने लगते हैं।
"हरिचांद ठाकुर और
म्तुयाधर्म" संपर्क में हमारे संक्षिप्त वक्तव्य यहाँ समाप्त होते जा
रहे हैं। उसके पहले और एकबार जोर देते हुए कहता चाहते हैं कि, म्तुयाधर्म और वैदिक
या हिन्दुधर्म एक नहीं हैं— यहाँ मतुया भाइयो को सर्वान्तकरण
में स्मरण रखना होगा। मतुयाधर्म और वैदिक अर्थात हिन्दुधर्म का मूल अंतर संक्षेप
में फिर एकबार उल्लेख किया जाता हैं।
1) हिन्दुधर्म चतुर्वर्ण
प्रथा में विश्वासी। मतुयाधर्म में वर्ण प्रथा या मनुष्य के भीतर कोई भेद नहीं हैं।
2) हिन्दुधर्म में समग्र
समाज का अर्धांश नारी को धर्मशास्त्र पाठ और धर्मचर्चा का अधिकार नहीं देता हैं।
मतुयाधर्म में बारी-पुरुष सब को स्वाधीनता के साथ धर्मचर्चा का अधिकार स्वीकार
करते हैं।
3) हिन्दुधर्म छुंत्मार्ग
में विश्वास करते हैं, एक अन्य को स्पर्श करने से या अन्य धर्मं के लोगों के घर
में आहार ग्रहण करने से हिन्दुओं की जाति चली जाती हैं। मतुयाधर्म में छुंत्मार्ग
का कोई स्थान नहीं हैं।
4) हिन्दुधर्म वैषम्य
मूलक — साम्य, मैत्री, स्वाधीनता नहीं हैं। म्तुयाधर्म
वैशाम्यहीन — साम्य, मैत्री, सवाधीनता का धर्म हैं।
5) हिन्दुधर्म विश्वास करता हैं कि पूर्वजन्म के पाप के फलस्वरूप निम्नवर्ण में जन्म होता हैं। मतुयाई इस पर विश्वास नहीं करते हैं । यह कारण हीनम्मन्यता को जन्म देता हैं।
6) हिन्दुधार्मी विश्वास करते हैं तीर्थभ्रमण से पाप विनष्ट
होते हैं। गुरु से दीक्षा नहीं लेने से उसको मुक्ति नहीं मिलेगी। मतुयाधर्म यह स्वीकार
नहीं करते। हरिचांद ठाकुर ने कहा — "दीक्षा नाइ करिबे
ना तीर्थ-पर्यटन। मुक्ति स्पृहा शून्य नाइ साधन भजन॥"
7) हिन्दुधर्म में असंख्य
देवदेवीयों और उनकी पूजा करने की विधि हैं। मतुयाधर्म में कोई देवदेवी नहीं, पूजा
भी नहीं।
8) हिन्दुधर्म में
बहु-विवाह प्रथा हैं। मतुयाधर्म में बहु-विवाह प्रथा नहीं हैं।
9) हिन्दुधर्म में अनेक
मंत्रतंत्र हैं। म्तुयाधर्म में कोई मंत्रतंत्र नहीं। म्तुयाओं का एकमात्र मंत्र — "हरिबोल"।
इस मंत्र से म्तुयाओं को समस्त धर्मकर्म और अनुष्ठान सुसम्पन्न होता हैं।
जय हरिचांद ! जय गुरुचांद
!
॥ समाप्त ॥
JAI bhim
ReplyDeleteNamo buddhay
JAI mulnivasi
ST, SC, OBC, MN
JAI SATNAM👌👌
BILKUL sahi lekhani Hai